हरिद्वार में पतितपावनी सरस सलिला मां गंगा के तट 12 साल बाद लगने वाले कुंभ मेले की तैयारियां पूरी हो चुकी है। सनातन धर्म और हिंदू धर्म दर्शन में विश्वास रखने वालें को कुंभ और अर्द्ध कुंभ का सिद्दत से इंतजार रहता है। यह इंतजार न केवल हम भारतियों को हता है, बल्कि दुनिया के तमाम देशों के लोगों को रहता है। क्योंकि यही वह पावन मौका जब लोगों हिंदू धर्म की विविधता को नजदीक से समझने का मौका मिलता है।
यही नहीं इसी महाकुंभ में परमपिता परमेश्वर के साधकों के विभिन्न रूप देखने को मिलते हैं। कोई शरीर में भष्म लपेटे दीगंबर तो धूनी रमाए अपने आराध्य की उपसाना करते दिखाइ देता है। लेकिन, इन सबसे अलग एक साधक और हैं जिन्हें लोग अघोरी या अवगढ़ कहते हैं। अधोरी नाम सुनते ही मानस पटल पर जो पहली तस्वरी उभर कर आती है वह रोगटे खड़ी कर देने वाली होती है। यह अघोर पंथ भी शिव साधना का ही एक हिस्सा है। इनकी साधना और आरधाना की पद्यति अन्य संप्रदायो और मतों से अलग होती है। यानी जिसे इंसानी दुनिया विभत्स या बुरा मानती है, अघोरी उसी विभत्स में जिवन का आनंद और बुराई में अच्छाई ढूंढ लेते हैं। यानी महाश्मशान को भी आनंदकान बना लेते हैं और शव पर शिव की साधना करते हैं।
कीनाराम थे परम सिद्ध अवघड़ (शिव के साधक अघोरी)
यदि अघोर संप्रदाय या अघोरियों की बात की जाय तो अघोराचार्य बाबा कीनाराम का उल्लेख किए बिना अघोरियों के बारे में लिखना अधूरा होगा, क्योंकि बाबा कीनाराम को अघोर संप्रदाय का अनन्य आचार्य कहा जाता है। कीनाराम का जन्म उत्तर प्रदेश के वाराणसी (चंदौली) जिले के रामगढ़ गांव में 1693 ई:सन में सूर्यवंशी क्षत्रीय कुल में पिता अकबर सिंह के घर में हुआ था। कहा जाता है कि कीनाराम का विवाह किशोरा वस्था में यानी12की आयु में ही हो गया था। लेकिन इनका गौना (दुल्हन की विदाई) नहीं था। गौने का रिवाज आज भी उत्तर प्रदेश और विहार में है।
एक दिन गोधूली यानी जब सूर्यास्त के समय इन्होंने जिद कर अपनी मां से दूध-भात मांग कर खाया और अगले ही दिन इनकी पत्नी के मरने सूचना कीनाराम के घर पहुंची। कहा जता है कि अघोर संत बाबा कीनाराम की मृत्यु सन 1769 में वारणसी में हुई थी और आज भी बाबा कीनारम का वाराणसी में मठ है और अघोर संप्रदाय अनेको अनुयायी इस मठ में रहते हैं। बाबा कीनारम का संबंध उत्तर प्रदेश के बलिया, गाजीपुर और जौनपुर के अलावा गिरनार से भी रहा है। बाबा कीनाराम का और अघोर संप्रदाय का उल्लेख डा: राजबली पांडेय ने भी अपनी पुस्तक ‘हिंदू धर्मकोष ‘ में किया है।
अधजले शवों का मांस खाते हैं अघोरी
अघोरियों के बारे में कहा जाता है कि वे मुर्दे का कच्चा मांस या जलती चिता से अधजले मुर्दे को निकाल कर उसका मांस खाते हैं। यही नहीं इंसानी खोपड़ी में मदिरा भी पीते है। कई मौकों पर अघोरियों ने यह बात मानी भी है। वाराणी के हरिशचंद्र घाट में रहने वाले एक अघोरी बाबा ने खुद माना है कि जो बातें आमजन को वीभत्स लगती है या विचलित करती है, अघोरियों के लिए वह उनकी साधना का अंग है। अघोरियों का निवास ही श्मशान और चिता भष्म उनकी धूनी और विछौना होता है। यही उनकी शक्ति और यही उनकी साधना भी होती है।
शिव और शव के उपासक
स्वामी आत्मा नंद आश्रम के महंत स्वामी आत्म प्रकाश शास्त्री के अनुसार अघोरी शिव और शव के उपासक होते हैं। वे कहते हैं अवघड़ खुद को पूरी तरह से भगव शिव की साधना में लीन रखना चाहते हैं। भगवान शिव के पांच रूपों में से एक अघोर रूप भी है, जिस कारण उन्हें अवघड़ दानी भी कहा जाता है। इसी अघोर शिव की उपसना अघोर संप्रदाय को मानने वाले अघोरी शव पर बैठकर भगवान शिव की साधना करते हैं। वे कहते हैं कि शव से शिव की प्राप्ति का यह मार्ग ही अघोर पंथ की निशानी है।
आत्मा नंद आश्रम की ही विदूषी आत्म ज्योति कहती हैं कि अघोर पंथ को मानने वाले अघोरी तीन तरह की साधाना करते हैं। पहला शव साधना। इस साधना के तहत जिसमें शव को मांस और शराब का भोग लगाया जाता है। दूसरा शिव साधना, जिसमें शव पर एक पैर पर खेड़े हो कर शिव की साधना की जाती है और तीसरा श्मशान साधना। यह वह साधना है जिसमे हवन किया जाता है। अघोरियों का मानना है कि वेविभत्स में भी ईश्वर के प्रति समर्पित हैं।
नरमुंड भी पहनते हैं अवघड़
भगवा शिव की तरह ही अघोरी नरमुंडों की माला भी पहनते हैं। यही नहीं अघोरी भोजन पात्र के रूप में मान खोपड़ी का इस्तेमाल करते हैं। वे इसी में भोजन करते हैं और मद्मपान भी। इसी लिए इन्हे कपालिक भी कहा जाता है। शिव के इसी स्वरूप का अनुयायी होने के नाते अवघड़ अपने साथ मानव खोपड़ी रखते हैं। आम तौर पर इंसानों से दूर रहने वाले अघोरी अपने साथ कुत्ता रखते हैं। अघोरियों का मानना है कि मनुष्य जब धरती पर जन्म लेता है तो वह अघोरी ही होता है। क्योंकि छोटा बच्चा गंदगी और भोजन में कोई अंतर नहीं समझता है। इसी तरह अघोरी भी अच्छाई और बुराई को एक समान एमझते हैं।